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शीलम् परम भूषणम्

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 ( ग्रंथ  शतकत्रय के नीतिशतकम् से कवि भर्तृहरि)  श्लोक श्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो , ज्ञानस्योपशम: श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रो व्यय: । अक्रोधस्तपस: क्षमा प्रभवितुर्धर्मस्य निर्व्याजता , सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम् ।। भावार्थ धन-सम्पत्ति की शोभा ‘सज्जनता’ , शूरवीरता की शोभा ‘वाक् संयम'(बढ़-चढ़कर बातें न करना) , ज्ञान की शोभा ‘शान्ति, नम्रता’ , धन की शोभा ‘सुपात्र में’ दान,  तप की शोभा ‘क्रोध न करना’  प्रभुता की शोभा ‘क्षमा’ और धर्म का भूषण ‘निश्छल व्यवहार’ है । परन्तु इन सबका कारणरूप  शील=सदाचार ‘सर्वश्रेष्ठ भूषण’ है ।। शीलं परमं भूषणम् स्वभाव में शील का महत्वपूर्ण स्थान है। शील को परिभाषित करना कठिन है। व्यावहारिक दृष्टि से शिष्टाचार ही शील है। शील के अंतर्गत बड़ों के प्रति आदर का भाव, छोटों के प्रति स्नेह तथा सहृदजनों के प्रति मैत्री का भाव समाहित है। इसमें संकोच, सौम्यता, शालीनता, उदारता अनेक गुण हैं। शीलवान व्यक्ति दूसरों की भावनाओं एवं स्वाभिमान की रक्षा करता है, अपनी वाणी से किसी को मर्माहत नहीं करता। संसार में संपन्न व्यक्त...